Friday, September 21, 2012

तूलिका

जैसे रंग हैं सब जगह 
फैले हुए, बिखरे हुए
हाथ बढा कर पकड़ना चाहती हूँ, तो हथेली पे लग जाते हैं
और हथेली पे घुल कर , अपनी पहचान भूल जाते हैं
तुम्हारा हाथ थाम कर
मैं सारे रंग घोलना चाहती हूँ
शायद...

Friday, August 3, 2012

कुछ तो बदला है कहीं
सांसें तो हैं ,
उसकी  खुशबू में सलवट पड़ गयी है लेकिन
इस्त्री लाकर सीधा करना होगा
हाथों में जोर नहीं है अब मगर
बिस्तर के नीचे दबा दूं.. या यूं ही पहन लूं ?

Friday, April 27, 2012

ख्वाब और ख्याल

सुबह के पहले ख्याल ने बीती रात के ख्वाब से कहा--

क्या रिश्ता है हमारा?
मैं तुमसे जन्मा हूँ ..मगर ये पैदाइश जायज़ है या नाजायज़ .. ये मालूम नहीं
लेकिन तुम पर 
कोई हुकूमत नहीं किसी की
तुम्हारे  सवाल तुम्हारे जवाब
तुम्हारे फ़लसफ़े तुम्हारी हकीक़तें .... सब तुम्हारे हैं
हक़  है तुम्हारा  उन पर 
तुम चाहो तो ग़मों से दूर 
इक मुख्तलिफ जहाँ में जा सकते हो 
बेनाम रिश्तों को भी
बा-अदब बेखौफ निभा सकते हो
तोड़ सकते हो ज़माने की बंदिशें 
हर गिला हर शिकवा भुला सकते हो

मगर मैं..
ख्वाब नहीं हूँ 
मेरे हिस्से आते हैं... सच
जो परवाज़ तुम्हारा हक है ..कुफ्र है मेरे लिए 
है जिसकी माफ़ी तुम्हें... पाप है मेरे लिए
थक चुका हूँ उकता चुका हूँ बस
इन कायदों इन रवायतों से 
हटा दो ये सलाखें  और उड़ने दो मुझे
या चिन दो एक दीवार और छोड़ दो मुझे 
अपने आक़ा की सरपरस्ती में 
हमेशा हमेशा के लिए ....

31/01/2007 

Friday, April 13, 2012

महाभारत

युद्धस्थल है ये कहा करते हैं इसको महाभारत
अपने अपने कार्य में है प्राप्त सबको ही महारथ
कोई है अर्जुन यहाँ तो कोई योद्धा भीम है
कर्ण को भी कम न आँको, शक्ति उसकी असीम है
और मुझे भी जान लो --
मैं हूँ अभिमन्यु
नया हूँ इस समर की भव्यता में
नीति को हूँ तलाशता मैं
इस अनोखी सभ्यता में
महाभारत में चरण धर युद्ध लड़ने की है ठानी
व्यूह-भेदन को चला मैं
साहसी पर अल्प ज्ञानी
भेद कर इस चक्र को अब
आ खड़ा हूँ मध्य में मैं
चक्र रथ का हस्त में रख
चहुँ दिशा के बंध्य में मैं
अंत अपना जानता हूँ
फिर भी मैं ये मानता हूँ
भाग्य तो न बदल सकूंगा
किन्तु ऐसे न मारूंगा
कृष्ण जिस ने था दिया पितु को मेरे गीतोपदेश
फिर उन्हें आना ही होगा हरण करने को ये क्लेश
मृत्यु को मैं प्राप्त तो हो जाऊंगा पर इस तरह से
मेरी जैसी मृत्यु को अपने तो क्या दुश्मन भी तरसे
मातु की है कृपा अन्यथा स्वयं तो मैं समर्थ न था
अब दिखा दूंगा उन्हें , की ये जन्म मेरा व्यर्थ न था
अब लिखूंगा नव कथानक , बदल अपनी परिणीती
इन पुरा योद्धाओं को भी सिखा दूंगा युद्ध नीति
भयाक्रांत समाज को अब इक नयी ताकत मैं दूंगा
सीख लेंगी पीढियां नव..
                                                   महाभारत नव रचूंगा
May 5, 2005

जीवन का खालीपन

मौसम
दिन भर के क्रिया कलापों का
एकांत की किसी संध्या को
जब कभी स्मरण हो आता है
इस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....

वर्षा के पुलकित मौसम में
खाली मैदान की माटी से
जब कोई अंकुर उठता है
धरती से पौधा उठता है
उन्मुक्त हवा में प्रथम बार
आती पहली अंगडाई को
जब क़दम कोई कुचल जाता है
इस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....

मेरे बनते आशियाने में
मजदूर की प्यारी सी बच्ची
मुट्ठी में ले थोड़ी रेती
घर की परिक्रमा लगाती है
अपने दो रूपये की पायल
छनका कर मुझे दिखाती है
उस नन्ही सी बच्ची का सर
जब उसी रेत के बोझे से
कुछ नीचे को झुक जात है
इस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....

जब फटे पुराने कपड़ो में
कुछ आठ साल का एक लड़का
एक मधुर तराना गता सा
धीरे धीरे मुस्काता सा
खाने की मेज़ पोंछता है
और जूठन सभी उठाता है
मैला पोंछा उन हाथों का
तब मुझको शक्ल चिढाता है
और इस जीवन का खालीपन कुछ और मुखर हो जाता है ....

April, 2006

रंग

आज किसी ने पूछा
ये लाल रंग क्यूँ इतना पसंद है तुझे?
मैं नहीं जानती क्यूँ
..... शायद इसलिए की ये रंग कुछ बदल देता है
माहौल, मौसम ,कैफियत ... या शायद सब कुछ!

सवेरे सवेरे नहा के आई माँ के माथे पर
चमकती लाल बिंदी और सुर्ख लाल सिन्दूर
एक जान सी  भर देता है घर में.....

या एक बंजारन की बिटिया
जब अपनी माँ की लाल ओढ़नी अपनी गुडिया को ओढाती है
उसके चेहरे की चमक कुछ अलग ही हो जाती है...

मेरी छोटी सी बगिया एक लाल गुलाब से
खिल उठती है , उसकी महक बदल जाती है....

घनघोर अँधेरे के बाद उगता लाल सूरज
संसार के कैनवस पर भर देता है रोशनी का लाल रंग...

वैसे ही जैसे मेरी लाल पेंसिल
ज़िन्दगी के कैनवस पर ढुलका देती है
ज्ञान की रक्तिम ज्योति
एक  आभा जो बदल देती है ....जीवन
उसका माहौल, मौसम , कैफियत... सब कुछ...

March 3, 2005

मोड़

When you look back ..you know that you took the right turn :)
कहानी वही रहती है
किरदार बदल जाते हैं
घर वही रहते हैं
लोग बदल जाते हैं
दिन वही रहते हैं
मुस्कुराहटें बदल जाती हैं
हम वही रहते हैं
राहें बदल जाती हैं

Tuesday, March 27, 2012

बचपन

मुस्कुराहटें हर देश में एक सी होती हैं 
वो खेल वो खिलोने
वो मिटटी के बिछौने
वो गुड्डे वो गुड़ियाँ
वो जादू सी घड़ियाँ
कहाँ से मैं लाऊं वो चमकीली आखें
जो नीड़ में चिड़िया के कौतुहल के साथ झांकें
वो आँखें जिनके सपनो में
फूलों की परियां
चंदा मामा की लोरी और तारों की दरियाँ
कहाँ खो गयी वो बचपन की अक्लमंदी
की ज़ख्मों को खा कर जब एक आँख मूंदी
जो कोई न देखे तो संभले और भागे
मगर माँ जो देखे तो आंसू के धागे
कहाँ से वो बचपन की कविता अब लाऊँ 
की शब्दों को खा कर जिसे मैं सुनाऊँ
अगर ढूंढ कर फिर भी वो गीत लाऊँ
कहाँ से लरज़ती वो आवाज़ पाऊं
क्यूँकि नन्हे से पाँव अब बड़े हो गए हैं
फूलों से वो हाथ अब कड़े हो गए हैं
याद आया ये सब जब मिली एक पारी
गाल जिसके गुलाबी
मगर आँखें भरी
पूछती जब वो भोली सी नन्ही सी जान
पापा कब छोटे होंगे और कब मैं जवान?
March 3, 2004